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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

शिव लिंगम क्या है ?






सावन माह का हर दिन  बाबा भोलेनाथ को समर्पित  होता है I घर घर में रुद्राभिशेख का आयोजन किया जाता है व  हर शिव मंदिर में बाबा भोलेनाथ की पूजा अर्चना होती  है  और  पूरी पृथ्वी  शिवमय हो जाती हैI  किसी ने यह प्रश्न किया की क्या स्त्रियाँ  बाबा भोलेनाथ की पूजा अर्चना कर सकती हैं ? मैंने तो हर मंदिर में पुरुषों  से कहीं अधिक स्त्रियों को ही शिव लिंगम की पूजा करते पाया I शिव लिंगम के विषय में खोज बीन करते हुए कई नयी जानकारियां सामने आयीं जिसे मैं आप के साथ साझा करना चाहूंगी I

शिव लिंगम गोलाकार, अण्डाकार, शिव लिंगम की एक प्रतिष्ठित छवि को एक गोलाकार आधार (पीडम के रूप में जाना जाता है) पर रखा गया है, जो सभी शिव मंदिरों में गर्भगृह (गर्भगृह) में पाया जाता है, जिसने बिना बोध किए विभिन्न व्याख्याओं को जन्म दिया है। प्राचीन हिंदू ऋषियों द्वारा खोजे गए वैज्ञानिक सत्य। भगवान शिव के पवित्र प्रतीक के रूप में शिव लिंगम की पूजा करने की प्रथा अनादिकाल से रही है।
शिव लिंगम की पूजा केवल भारत और श्रीलंका तक ही सीमित नहीं थी। लिंगम को रोम के लोगों द्वारा ’प्रयापस’ के रूप में संदर्भित किया गया था जिन्होंने यूरोपीय देशों में शिव लिंगम की पूजा शुरू की थी। प्राचीन मेसोपोटामिया के एक शहर बाबुल में पुरातत्व निष्कर्षों में शिव लिंगम की प्रतिमाएं मिली थीं। इसके अलावा, हड़प्पा-मोहनजो-दारो में पुरातत्व संबंधी निष्कर्षों, जो कई शिव लिंगम विधियों को प्राप्त करते हैं, ने एरियन के आव्रजन से बहुत पहले एक विकसित संस्कृति के अस्तित्व का खुलासा किया है।
हिंदू धर्म में, भगवान को साकार करने के विभिन्न तरीके हैं, जो इंगित करता है कि हिंदू धर्म उदार है और इसके कोई कठोर सिद्धांत नहीं हैं। व्यक्तिगत हिंदुओं को उनके स्वभाव के अनुसार भगवान का एहसास होता है। हिंदू धर्म के अनुसार, भगवान विभिन्न पहलुओं और रूपों में प्रकट होते हैं और उन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है।
शिव लिंगम में तीन भाग होते हैं। नीचे का भाग जो चार-तरफा है, भूमिगत रहता है, मध्य भाग जो कि आठ-तरफा है, पैदल मार्ग पर बना हुआ है। शीर्ष भाग, जिसे वास्तव में पूजा जाता है, गोल है। गोल भाग की ऊंचाई इसकी परिधि का एक तिहाई है। नीचे के तीन भाग ब्रह्मा का प्रतीक हैं, मध्य में विष्णु और सबसे ऊपर शिव हैं। पेडस्टल को शीर्ष पर डाला गया पानी निकालने के लिए एक मार्ग प्रदान किया जाता है। लिंगम भगवान शिव की रचनात्मक और विनाशकारी शक्ति दोनों का प्रतीक है और भक्तों द्वारा बड़ी पवित्रता जुड़ी हुई है।

कुछ आलोचकों के लिए शिव लिंगम की छवि पर एक पुरुष अंग के रूप में काल्पनिक आविष्कार करना और अश्लीलता के साथ देखना दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन यह आसानी से भूल गया था कि आधार से एक फालूस कैसे प्रकट हो सकता है। इसके अलावा, चूंकि भगवान शिव का कोई रूप नहीं है, इसलिए यह कहना हास्यास्पद है कि लिंगम एक फलस का प्रतिनिधित्व करता है। यही कारण है कि स्वामी विवेकानंद ने शिव लिंगम को अनन्त ब्राह्मण के प्रतीक के रूप में वर्णित किया है ।
शिव लिंगम ब्रह्मांड और ब्रह्मांड की समग्रता का प्रतिनिधित्व करता है, बदले में, एक ब्रह्मांडीय अंडे के रूप में प्रतिनिधित्व किया जाता है। फिर से एक अंडा एक दीर्घवृत्ताभ है जिसका न कोई आरंभ है, न अंत।
शिव लिंगम की छवि पर एक नज़र तीन स्तंभों के साथ एक स्तंभ और उसके नीचे एक डिस्क है और कभी-कभी स्तंभ के चारों ओर एक कोबरा सांप के साथ एक स्तंभ है और स्तंभ के ऊपर अपने नुकीले दिखाता है। डेनिश वैज्ञानिक, नील्स बोह्र के वैज्ञानिक अनुसंधान के पीछे का सच, यह दर्शाता है कि अणु से बने अणु (हर चीज का सबसे छोटा हिस्सा) जिसमें प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन होते हैं, जो सभी शिव लिंगम की संरचना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । उन दिनों में इन अंग्रेजी शब्दों जैसे कि प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन, अणु और ऊर्जा का उपयोग करने के बजाय, प्राचीन ऋषियों ने लिंगम, विष्णु, ब्रह्मा, साक्षी (जो बदले में रेणुका और रुद्राणी में विभाजित हैं) जैसे शब्दों के उपयोग को नियोजित किया। सर्प, आदि संस्कृत उन काल की प्रमुख भाषा थी।
हिंदू धर्म के अनुसार, स्तंभ को अग्नि के स्तंभ के रूप में वर्णित किया गया है जो तीन देवताओं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है जबकि डिस्क या पीडम शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। डिस्क को तीन लकीरों के साथ दिखाया गया है, इसकी परिधि में संलग्न है।
महाभारत के लेखक ऋषि व्यास ने उल्लेख किया है कि भगवान शिव उप परमाणु कण जैसे प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन से छोटे हैं। साथ ही, उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि भगवान शिव किसी भी चीज़ से बड़े हैं। वह सभी जीवित चीजों में जीवन शक्ति का कारण है। सब कुछ, चाहे जीवित हो या निर्जीव, शिव से उत्पन्न होता है। उसने पूरी दुनिया को घेर लिया है। वह टाइमलेस हैं। उसका न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। वह अदृश्य है, अव्यक्त है। वह आत्मा की आत्मा है। उसके पास कोई भावना, भावना या जुनून बिल्कुल नहीं है। मन की एकाग्रता को प्रेरित करने के लिए शिव लिंगम में एक रहस्यमय या अवर्णनीय शक्ति है जो किसी का ध्यान केंद्रित करने में मदद करती है। 
एक और वैज्ञानिक सत्य है कि लिंगम पर डाला गया पानी पवित्र जल  नहीं माना जाता है । शिव लिंगम को एक परमाणु मॉडल माना जाता है। लिंगम से विकिरण होता है क्योंकि यह एक प्रकार के ग्रेनाइट पत्थर से बना है। ग्रेनाइट विकिरण का एक स्रोत है और इसकी उच्च रेडियो गतिविधि होती है, इसमें स्वाभाविक रूप से रेडियोधर्मी तत्व जैसे रेडियम, यूरेनियम और थोरियम होते हैं।  ऋषियों को पता था कि अगर कुछ दुर्घटनाएँ होती हैं, तो विकिरण में कमी आएगी और यही कारण है कि शिव मंदिरों को समुद्र, तालाबों, नदियों, टैंकों या कुओं के आसपास के क्षेत्रों में बनाया गया था। शायद यही कारण हो सकता है कि ये पांचों ईश्वरम मंदिर श्रीलंका के तट के आसपास बनाए गए थे, हालांकि टेन्देश्वरम टेक्टोनिक प्लेटों के संचलन के कारण समुद्र में डूबा हुआ था। यहां तक कि मानसरोवर झील, माउंट कैलाश के आधार पर स्थित है।

गुरुवार, 27 जून 2019

माँ कामख्या मंदिर का अम्बुबाचि मेला

इस वर्ष जून माह में गरर्मियों की छुट्टियों में माँ कामख्या के दर्शन के लिए गोहाटी जाना हुआ. पूजा अर्चना के बाद जब हम वहां से चलने लगे तो पंडितजी ने कहा की आप लोग सही समय पर आयें हैं अगर एक हफ्ते बाद आये होते तो माँ के दर्शन नहीं हो पाते  क्योंकि आषाढ़ माह में अम्बुबाचि मेले के दौरान मंदिर के कपाट तीन दिनों तक बंद रहता है.इस मेले के विषय और उससे सम्बंधित जानकारी आप लोगों से साझा करना चाहूंगी.

 असम के नीलांचल पर्वत पर समुद्र तल से करीब 800 फीट की ऊचाई पर माँ कामख्या  देवी का मंदिर स्थित है, जो की देवी के 51शक्ति पीठों  में से एक माना जाता है. माना जाता है की भगवान् विष्णु ने भगवान् शिव का  मोहभंग करने के लिए  जब देवी सती के शव  को चक्र से काटा  तो उनके शरीर  के 51 हिस्से धरती पर गिरे . वे टुकड़े जहाँ जहाँ  गिरे वहां वहां देवी के शक्तिपीठ स्थापित हुए. माता के योनी का भाग जहाँ पर गिरा ,वह कामरूप कहलाया, जो कामख्या शक्तिपीठ के नाम से दुनियाभर में प्रसिद्द है. इस  मंदिर में देवी की कोई मूर्ती या चित्र नहीं दिखाई  देता है.मंदिर में एक कुण्ड बना है जो की हमेशा फूलों से ढका रहता है इस कुण्ड से हमेशा ही जल निकलता रहता है.
अम्बुबाचि  शब्द “अम्बु” और “बाचि” दो शब्दों को मिलाकर बना है  , जिसमे “अम्बु “का अर्थ पानी और “बाचि” का अर्थ है उत्फूलन. यह शब्द स्त्रियों की शक्ति और उनके जन्म क्षमता को दर्शाता है. यह मेला उस समय लगता है जब माँ कामख्या ऋतुमती रहती हैं .  अम्बुबाचि योग पर्व के दौरान माँ भगवती के गर्भ गृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं . तीन दिनों के बाद माँ भगवती की विशेष पूजा व साधना की जाती है. चौथे दिन ब्रह्म मुहूर्त में देवी को स्नान करवाकर श्रींगार के उपरान्त ही मंदिर श्रधालुओं के लिए खोला जाता है.
                                                                                               
      देवी की योनिमुद्रापीठ दस सीढ़ी नीचे एक गुफा में स्थित  है. कहतें है की देवी के रजस्वला होने से पूर्व गर्भ गृह स्थित महामुद्रा के आसपास सफ़ेद वस्त्र बिछा दिए जाते हैं,तब यह वस्त्र माता के रज से रक्तवर्ण हो जाता है. उसी वस्त्र को भक्त गण प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. . धार्मिक कथाओं के अनुसार सतयुग में माँ कामख्या 16 साल में एक बार रजस्वला होती थीं , द्वापर युग में 12 साल बाद और त्रेता युग में ७ साल बाद अम्बुबाची के पर्व का आयोजन होता था . कलयुग में हर साल जून  में यह आयोजन होता है. आश्चर्य की बात है की इन तीन दिनों में ब्रह्मपुत्र का जल भी लाल हो जाता है.      


  भूविज्ञान के  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझें तो आसाम के मिटटी में प्राकृतिक रूप से उच्च लौह तत्व होता है जो पानी का रक्त रंग बनता है. कामख्या मंदिर के पहाड़ में सिनेबार (मर्कुरिक सल्फाइड ) प्रचुर मात्रा में पाया जाता  है. तथ्य के रूप में खनिज सिनेबार को शक्ति पूजा के साथ सबसे महत्वपूर्ण से जोड़ा  जाता है, जिसमें दो सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल – कामख्या  और हिंगलाज (पाकिस्तान में ) सिनेबार जमा वाले क्षेत्रों में स्थित है. अम्बुबाचि मेले के समय ब्रहमपुत्र नदी अपने  मौसमी बाढ़ की शुरुआत करती है. लोहे की समृद्ध नदी जब भूमिगत गुफा में पहुंचती  है जो की मर्कुरिक सल्फाइड  से भरी रहती है तब नदी का जल पूर्ण रूप से रक्त लाल  हो जाता है .परन्तु सवाल यह  उठता है की केवल तीन दिन ही ब्रहमपुत्र नदी का पानी रक्त लाल क्यों होता है , बाकी बाढ़ के दिनों में क्यों नहीं?                                                                                                                                                     
यह एक धर्म  भी है , धर्म  से जुड़ा रहस्य  भी  है और  भूविज्ञान भी. 

यदि आप लोगों में से कोई  इस विषय में और भी जानकारी साझा करना चाहें तो आप सभी का स्वागत है.

    




मंगलवार, 18 जून 2019

गोदना बनाम टैटू

 गोदना बनाम टैटू

कक्षा में लेह के चंग्पा जनजाति के लाइफस्टाइल में उनकी पश्मीना बकरियों के बारे में बात हो रही थी जिसमे वे अपनी भेड़ बकरियों को एक साथ एक ही स्थान (लेखा) में रखते हैं  और अपनी अपनी बकरियों की  पहचान के लिए विशेष निशान बना देते हैं. एक बच्चे ने मुस्कुरा कर कहा ठीक जैसे गाँव में गोदना गोद देतें हैं और इसी पर सभी बच्चे जोर जोर से हँसने लगे. बात आई गयी हो गयी. एक दिन उर्मिला शुक्ल द्वारा लिखित कहानी गोदना के फूल पढ़ते समय कक्षा में घटी घटना और आजकल फैशन में चल रही टैटू  की याद आ गयी. याद आ गयी बुआ ,चाची और दादी की कलाई पर बने काले काले फूल पत्तियों की. दादी कहती थी की गोदना गुदवाना शुभ माना जाता है. पूर्वांचल में आज भी बड़ी बूढ़ियाँ अपने पति का नाम नहीं लेती हैं. उनके पति का नाम उनके घर के बच्चे बताते हैं. यदि ज्यादा जरूरी हो और कोई विकल्प नहीं हो तो वे  अपना हाथ आगे कर देतीं हैं , जहां पति के नाम का गोदना होता है. कृष्ण की लीलाओं में एक लीला गोदना गोदने की भी है.वे नट्टिन का वेश भूषा  अपनाकर गोपियों को गोदना गोदतें हैं.
कान्हा धई के रूप जननवा
गोदे चले गोदनवा
गोदना भले गाँव से विलुप्त हो गया हो, पर आज भी गोदना लोकगीतों में विराजमान है.
गोदना पहले गाँव के लोग ही गोदवाते थे और शहर के लोग जो गोदना को पिछड़ेपन  की निशानी मानते थे अब धड़ल्लेसे टैटू अपने बाजू पर बनवाते हैं. अभी तक इसका प्रचलन जनजातियों में विशेष रूप से होता था  पर अब तो पढ़े लिखे  लोग भी इसे अपने शरीर पर रंग बिरंगे स्याहियों से  मशीन से गुदवाने लगे हैं जिसे टैटू का नाम दिया गया है.
गोदना की प्रथा प्राचीन कालसे चली रही है. इस कला का प्रमाण ईसा से १३०० साल पहले ,मिश्र में ३०० वर्ष ईसापूर्व  साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले हैं.   आश्चर्य की बात यह है की कुछ लोग कुरूप दिखने के लिए गोदना गोदाते हैं तो कुछ लोग आकर्षक दिखने के लिए. राजस्थान में गोदना का चलन सभी जनजातियों में है ,लेकिन भाट, नट, बंजारा, कालबेलिया ,आदि में इसका अधिक प्रचलन है. छत्तीसगढ़ में यह माना जाता है की गोदना गुदवाये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती.भीलों की मान्यता की शरीर को इससे कई बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है. वहीँ गोंड जनजाति की मान्यता है की कोई इसे चुरा नहीं सकता. गोंड जाति के लोग यह मानते हैं की जो बच्चा चल नहीं सकता, चलने में कमजोर हो , उसके जांघ के आसपास गोदने से वह न सिर्फ चलेगा  बल्कि दौड़ने लगेगा. भील यह मानते हैं की गोदने के कारण शरीर बीमारियों से बच जाता है. कुछ लोगों का यह मानना है कि गोदना के कारण आत्माएं क्षति नहीं पंहुचा सकती. बैगा जनजाति संसार में सबसे अधिक गुदना प्रिय है.  बैगा जनजाति गोदना को बहुत अहमियत देते हैं. बैगा स्त्री गोदना गुदवाने को अपना धर्म मानती हैं. एक गोदना ही ऐसी चीज़ है , जो साथ जाती है. मरते वक्त तो लोग तन से कपड़ा भी उतार लेतें हैं .


  मध्य प्रदेश के बैगा आदिवासी मुख्यतः जड़ी बूटियों का उपयोग करते हैं. इनकी ऐसी धारणा है की गोदना गुदवाने से गठिया ,वात या चर्म रोग नहीं होते.
 बैगा आदिवासी गोदना गोदने के लिए रमतिला (काला तिल ) का तेल , सरई  (साल ) की गोंद को मिलाकर एक पात्र में जलाते हैं . इस पात्र के ऊपर एक दूसरे पात्र को ढककर उससे काजल बनाते हैं.इसमें आधा कटोरी बीजा का रस मिलाया  जाता है. इस मिश्रण को 12 सुईयों के माध्यम से शर्रीर में गोदा जाता है.गाय के गोबर का उपयोग भी किया जाता है.
  वैज्ञानिक पहलुओं पर गौर करे तो इन जड़ी बूटीओं से बनाया गया गोदना शरीर को सुरक्षित रखता है और शायद इसलिए आज भी यह कला प्रयोग में लायी जा रही है..
काले तिल के तेल में नियासिन , ओलिक एसिड , कार्बोहायड्रेट, प्रोटीन , फाइबर, स्टीयरिक एसिड ,  राइबोफ्लेविन  और एस्कॉर्बिक एसिड जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व होतें हैं जिसमे उत्तम उपचार करने की क्षमता होती है .घावों के कारण होने वाली जलन से रमतिला या काला तिल का तेल तुरंत राहत  प्रदान करता है
साल वृक्ष का राल एक शक्तिशाली एस्ट्रिजेंट के साथ साथ एंटी माइक्रोबियल गुणों से भरपूर होता  है  जो इसे हर्बल मलहम में एक अदभुत  घटक बनता है. राल को एक पेस्ट के रूप में दर्दनाक सूजन का इलाज करने के लिए बाहरी रूप से लगाया जाता है. राल को घावों को साफ़ करने और उपचार में तेज़ी लाने उपयोग किया जाता  है.  बीजा का  रस एक जीवाणुरोधी एवं अदभुत एस्ट्रिजेंट है जो त्वचा की स्थिति को ठीक करने में मदद करता है. गाय का गोबर अपने एंटी बैक्टीरियल गुणों के कारण त्वचा रोगों के इलाज़ के लिए तथा संक्रमण को कम करने में सहायता करता है .
चिकित्सकों का मानना है की टैटू बनाने में संक्रमित सुई और संक्रामक स्याही के इस्तेमाल से टिटनेस , हेपटाइटिस ,टीबी  और एड्स जैसे जानलेवा संक्रमण हो सकते हैं. शोध में कहा गया है कि टैटू बनाने  में लाये जाने वाले ज्यादातर औद्योगिक रसायन होते हैं जिनका उपयोग वाहनों के पेंट या फिर  स्याही बनाने में होता है  और शरीर के किसी भी हिस्से में इनका उपयोग करना सुरक्षित नहीं है.यह तो तै है की गोदना अगर देसी हो तो शरीर सुरक्षित रहेगा पर विदेशी रंग में रंग जाए तो टैटू बनकर शरीर को संक्रमित कर सकता है.



सोमवार, 20 मई 2019

हमारी तुलसी




स्वीट बेसिल हमारी तुलसी नहीं हो सकती




हम अपनी परम्पराओं को मानें  तो तुलसी को लक्ष्मी के अवतार में पूजा जाता है. श्री विष्णु को प्रिय होने की वजह से तुलसी को “हरिप्रिया” भी कहा जाता है. परंपरागत रूप से तुलसी को घर के आँगन में लगाया जाता है. कोई समय था जब तुलसी का चौरा यदि घर के आँगन में न हो तो घर आँगन  कुछ अधूरा सा लगता था. . कहा जाता है की तुलसी को घर के आँगन में या बाहर  ही लगाया जाना चाहिए . तुलसी स्वाभाविक रूप से उष्णकटिबंधीय या उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पायी जाती है. तुलसी ठण्ड के प्रति बहुत संवेदनशील होती है . कड़ी धूप में तुलसी की बढ़त बहुत ही अच्छी तरह से होती है. यही वजह है की तुलसी को घर के आँगन या बाहर रखने की परंपरा बन गयी .वैसे तुलसी को घर के अन्दर भी रखा जा सकता है.
अब शहरों में  जगह की कमी या फ्लैट सिस्टम होने की वजह से तुलसी का चौरा आँगन से सिमट कर बालकनी में भले ही आ गया हो पर आज भी तुलसी की उपयोगिता  वैसी ही बनी हुई है. किसी को  जुखाम हो तो  काली मिर्च के साथ , खांसी हो तो  अदरक के साथ, बुखार हो तो  शहद के साथ, सांस लेने में तकलीफ हो तो हल्दी के ................. एक लम्बी लिस्ट बन जाएगी. तुलसी के पत्तों से लेकर जड़ तक का उपयोग होने के कारण आयुर्वेद में इसे जीवन का अमृत माना जाता है.
बचपन में जब परीक्षा देने जाते थे तो हम सभी तुलसी के  पत्ते  मुहँ में रख लेते थे या गटक जाते थे. शायद ....हम सभी लोग. तुलसी की पत्तियों  को दाँतों से चबाना नहीं चाहिये ,ऐसा  घर के बड़े कहते थे.बहुत बाद में समझ में आया की तुलसी में आयरन और मरकरी काफी अधिक मात्र में पाया जाता है और पत्तियों को चबाने से दाँतों की उपरी परत  (enamel) क्षतिग्रस्त हो सकती है.
मंदिर में प्रभु दर्शन के समय पुजारी जी अपनी छोटी सी ताम्बे की लुटिया से चरणामृत सभी श्रद्धालुओं को देतें हैं जिसमे तुलसी के पत्ते भी दिखाई देतें हैं ,जिसे सभी श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा से अपने दाहिनी हथेली में ले कर उसका सेवन करतें हैं.  तांबे के बर्तन में जल रखने से तांबे के औषधीय गुण तो आ ही जाते हैं और फिर तुलसी पत्ता उसी जल में डाल दिए जाएँ तो सोने पे सुहागा,स्वस्थ लाभ के साथ साथ यह जल मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है और बुद्धि, स्मरण शक्ति को भी बढानें में भी कारगर होता है. 
आजकल के भागम भाग जिंदगी में सबसे ज्यादा जगह स्ट्रेस ने और योग ने ले ली है . यदि योग- ध्यान हम तुलसी के बाग़ में करें तो कहा जाता है की स्ट्रेस नौ दो ग्यारह हो जाता है . कैसे ?तुलसी के पौधे सबसे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन बनाते हैं  और एक विशेष प्रकार की वाष्प तुलसी के पौधे द्वारा हवा में छोड़ा जाता है जो वायुमंडल को शुद्ध करता है .यह वास्तव में  तुलसी के पौधे में मौजूद एक असेंसिअल खुशबुदार आयल होता है जो वाष्पित हो हवा के माध्यम से फैलता है और बैक्टीरिया एवं अन्य पदार्थों से वायु को मुक्त करता है जो रोगों का कारण बनतें हैं. तुलसी के पौधे के पास रखने से चीजे आसानी से खराब नहीं होती हैं. तुलसी के पौधों के बीच रखने पर मृत शरीर भी तेजी से नहीं सड़ते .जीवाणुरोधी गुण और पत्तियों की विद्युत् ऊर्जा संग्रहित भोजन सामग्रियों को ग्रहण के दौरान प्रकाश विकिरण के प्रतिकूल प्रभाव से रक्षा करती हैं.
एक दिन टेलीवीजन पर फूड्स चैनल पर इतालवी कैमप्रेस  सलाद में टमाटर और मोजरेला के साथ बेसिल के पत्तों से सजावट की बात की जा रही थी जिससे उसकी खुशबू और स्वाद अलौकिक हो जाता  है.  सभी को मालूम है कि इतालियन या थाई भोजन में बेसिल का उपयोग किया जाता है .बेसिल क्या  होता है? बेसिल को जब गूगल किया तो बेसिल यानी तुलसी बताया गया. लेकिन दूर दूर तक मुझे याद नहीं की घर में कभी किसी व्यंजन में माँ ने तुलसी के पत्तों का उपयोग किया हो .हाँ, घर में चरणामृत ,पंचामृत ,प्रसाद में या फिर ग्रहण के समय भोजन में तुलसी के पत्तों का प्रयोग होते देखा है.
 तुलसी के अर्क का उपयोग आयुर्वेदिक उपचार में आम सर्दी, सिर दर्द, पेट की खराबी, सूजन, हृदय रोग, विभिन्न प्रकार के विषाक्तता और मलेरिया के लिए किया जाता है। परंपरागत रूप से, तुलसी को कई रूपों में लिया जाता है: हर्बल चाय के रूप में, सूखे पाउडर, ताज़ी पत्ती, या घी के साथ मिश्रित। कर्पूर तुलसी से निकाले गए आवश्यक तेल का उपयोग ज्यादातर औषधीय प्रयोजनों के लिए और हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता है.
दुनिया भर में हमारी तुलसी को “होली बेसिल” और थाई व्यंजनों में प्रयोग किये जाने वाली तुलसी को “स्वीट बेसिल” कहते हैं. तुलसी में ओलेअनोलिक एसिड ,उर्सोलिक एसिड, रोस्मारिनिक एसिड, यूगेनोल , कार्वक्रोल, लिनालूल , बीटा-कार्योफैलोन जिनकी वजह से यह आयुर्वेदिक औषधि के रूप में प्रयोग में लायी जाती है. स्वाद में तीखी और कड़वी होती है पर स्वीट बेसिल में लौंग की तेज गंध होती है और स्वाद में चटपटी होती  है . और यह चटपटी बेसिल हमारी तुलसी से बिलकुल अलग है.

तुलसी के सानिध्य में रहने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार बढ़ने लगता है और सभी तरह के नकारात्मक विचारों का नाश होता है.
II महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी
आधि व्याधि जरा मुक्तं तुलसी त्वां नमो स्तुते II



मंगलवार, 14 मई 2019

अद्भुत व विशिष्ट कुश घास

अद्भुत व विशिष्ट कुश घास 
               
कुम्भ मेले में बहुत से शिल्पकारों के  कला की नुमाइश लगी थी ,उनमे से एक जगह “ऋतु रग्स”
भदोही , की  घास की बनी  हुए  चटाईयां ,आसन , रनर ,कोस्टर आदि  लोगों द्वारा काफी पसंद की जा रहीं थी. पूछने पर बताया गया की यह इको फ्रेंडली  कुश घास से बनी है. कुश घास से फिर याद आया की पंडितजी पूजा शुरू करने से पहले इसी कुश घास की नोक को जल में भिगो कर चारों तरफ उस स्थान को शुद्ध करने के लिए घर या मंदिर में  छिड़कते हैं और धार्मिक अनुष्ठानों व  हवन में वैदिक मंत्रो के उच्चारण के समय यजमान के दाहिने हाथ की अनामिका में कुशा घास की बनी पैंती (अंगूठी) भी पहनाई जाती है. ऐसा क्यों किया जाता है ? जवाब – क्योकि यह एक पवित्र घास है . कैसे ? कोई जवाब नहीं. आज इसी अद्भुत व विशिष्ट कुशा घास के वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में बात करेंगे.

कुशा घास को  Desmostachya bipinnata के नाम से जाना जाता है. कुश की खेती हर जगह नहीं की जाती है, लेकिन यह प्राकृतिक रूप से चुनिंदा स्थानों में उगती है और उत्तर-पूर्व और पश्चिम उष्णकटिबंधीय, और उत्तरी अफ्रीका (अल्जीरिया, चाड, मिस्र, इरिट्रिया, इथियोपिया, लीबिया, मॉरिटानिया, सोमालिया, सूडान और ट्यूनीशिया) में उपलब्ध है; और मध्य पूर्व में देशों, और समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय एशिया (अफगानिस्तान, चीन, भारत, ईरान, इराक, इजरायल, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान, सऊदी अरब, थाईलैंड) में.
 यह एक पुरानी विश्व बारहमासी घास है , जिसे लम्बे समय से मानव इतिहास में जाना जाता है और इसका उपयोग किया जाता रहा है. इस घास  का उल्लेख ऋग्वेद में पवित्र समारोहों में उपयोग के लिए किया गया है  जिसमे पुजारियों एवं देवताओं के लिए कुश का आसन प्रयोग होता था.
बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध द्वारा कुश के आसान पर बैठ कर ज्ञान प्राप्त करने का उल्लेख बौद्ध खातों में मिलता है. श्री कृष्ण ने  कुश के आसन को ध्यान के लिए आदर्श आसन के रूप में माना है.  ऐसा माना जाता है की ध्यान के दौरान हमारे शरीर से ऊर्जा  उत्पन्न होती है . यदि हम कुश के आसन  पर बैठ कर ध्यान करें तो वह उर्जा पैर और पैर की उँगलियों के माध्यम से जमीन / धरती में जज्ब नहीं हो पाती  है.
हवन के दौरान  सभी नकारात्मक विकिरणों को रोकने में मदद के लिए कुश घास को आग के चारों तरफ रखा जाता है क्योंकि यह गर्मी और ताप /अग्नि  के बुरे संवाहक (bad conductor) होते हैं. हाल ही में चिकित्सा अनुसंधान में , कुशा घास में एक्स- रे विकिरण को अवरूध करने की क्षमता देखी गयी  है. इसकी नोक से ध्वन्यात्मक स्पंदनो को संचालित करने की विशेष क्षमता होती है. इसी वजह से पुजारी कुश घास की नोक को जल में भिगो कर पूजा पाठ के स्थान को शुद्ध करने के लिए जल का छिडकाव करतें हैं.
 पारंपरिक उष्णकटिबंधीय घास, कुश को एक पर्यावरण-अनुकूल भोजन परिरक्षक के रूप में पहचाना गया है। ग्रहण के समय ,कुश घास को पानी और भोजन के पात्रों पर रखा जाता था ताकि ग्रहण से किरणों के नकारात्मक प्रभाव उन्हें खराब न कर सके. ग्रहण के दौरान, पृथ्वी की  सतह पर उपलब्ध प्रकाश विकिरणों की तरंगदैर्ध्य और तीव्रता में परिवर्तन हो जाता है। विशेष रूप से, नीले और पराबैंगनी विकिरण, जो अपनी प्राकृतिक कीटाणुशोधन संपत्ति के लिए जाने जाते हैं, ग्रहण के दौरान पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं  होतें हैं। ग्रहण के समय, लोग उस घास को खाद्य पदार्थों में डालते थे जिनमे किण्वित (Fermentation) हो सकती हैं और एक बार ग्रहण समाप्त होने के बाद घास को हटा दिया जाता है.  ग्रहण के दौरान खाद्य उत्पादों में सूक्ष्म जीवों की अनियंत्रित वृद्धि होती है और खाद्य उत्पाद उपभोग के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं।  कुश घास  का उपयोग  ऐसे विशिष्ट अवसरों पर एक प्राकृतिक कीटाणुनाशक के रूप में किया जाता था,ऐसा शोधकर्ताओं का कहना  है।
SASTRA विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा एक व्यवस्थित शोध किया गया, जिसमें गाय के दूध की दही को एक खाद्य पदार्थ के रूप में चुना गया जिसमें आसानी से किण्वन (fermentation)की प्रक्रिया हो सकती है.
पांच अन्य उष्णकटिबंधीय घास की प्रजातियां, जिनमें लेमन ग्रास, बरमूडा घास और बांस शामिल हैं, को एंटीबायोटिक गुणों और हाइड्रो फोबिसिटी के विभिन्न स्तरों के आधार पर तुलना के लिए चुना गया था. दही के सूक्ष्म जीव समुदाय (lectobacillus bacteria) पर विभिन्न घासों के प्रभाव का अध्ययन करने पर ,केवल कुश घास के पदानुक्रमित सतह में बैक्टीरिया की भारी संख्या में आकर्षित करने की विशेषता पायी गयी .
इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोपी द्वारा विभिन्न घासों के नैनो –पैटर्न और पदानुक्रमित सूक्ष्म संरचनाओं की जांच में  कुश घास में अदभुत नैनो –पैटर्न व पदानुक्रमित सूक्ष्म संरचना पायी गयी जो अन्य घासों में नहीं थी.   इसके अलावा, वैज्ञानिकों का कहना है कि कुश घास  को हानिकारक रासायनिक परिरक्षकों के स्थान पर प्राकृतिक खाद्य परिरक्षक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.
SASTRA विश्वविद्यालय, थंजावुर के डा. पी.मीरा  और डा. पी. ब्रिन्धा के पर्यवेक्षण में यह खोज सेंटर फार नैनोटेक्नोलाजी एंड एडवांस्ड बायोमेटरिअल्स (CNTAB) और सेंटर फार एडवान्स्ड रीसर्च इन इंडियन सिस्टम आफ मेडिसिन (CARISM) के संयुक्त  तत्वाधान में  विकसित की गयी थी.

                    II  कुश घास का उपयोग  हमारी ऊर्जा को   संरक्षित करता है II

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सोमवार, 6 मई 2019

अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया 



बैशाख माह को वसंत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का संधि काल माना जाता है. इसी माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जब सूर्य और चन्द्रमा अपने  सबसे  उत्तम रूप में उदय होते हैं और अपनी दिव्य ऊर्जाओं से परिपूर्ण रहतें हैं, को अक्षय तृतीया का नाम  दिया गया है.
अक्षय तृतीया को अपार शुभता के कारण सर्व सिद्धि मुहूर्त , अनंत-अक्षय ,अक्षुण्ण फलदायक कहा जाता है. अक्षय का अर्थ है असीम या जो कभी कम न हो . बैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि  को  जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं , उनका अक्षय फल मिलता है ऐसा सुनाने – पढने को मिलता है. क्यों का जवाब कभी मिल नहीं पाया.
 हमारी संस्कृति में यह दिन बहुत ही शुभ माना जाता है, बहुत सी पौराणिक कथाएं इस दिन से जुड़ीं हैं जैसे त्रेतायुग का आरम्भ व नारायण का अवतार लेना , सूर्य  और चंद्रमा का  अपनी उच्च राशि में रह कर  अपनी दिव्य ऊर्जाएं ब्रह्माण्ड में वितरित करना , भागीरथी के प्रयास से गंगा का पृथ्वी पर अवतरण होना, कृष्ण का  पांडवो को वनवास के समय एक अक्षय पात्र देना , सुदामा का श्री कृष्ण से मिलने जाना  और उन्हें अपार धन सम्पति का लाभ होना ,देवी महालक्ष्मी का प्रकट होना , इत्यादि .
अक्षय का अर्थ है असीम या जो कभी कम न हो. जरा दिमाग पर ज़ोर लगा कर  ऐसी वस्तुओं की एक सूची बनाने का प्रयास करें जो कभी कम नहीं होगा. क्या आपकी सूची में ज़मीन,मकान,खेत ,धन-दौलत , आभूषण ही हैं या पर्यावरण से सम्बंधित ऊर्जा के स्रोत जैसे जल,वायु, पृथ्वी ,ऑक्सीजन , सूर्य, चंद्रमा भी शामिल हैं. यदि  आज के परिपेक्ष्य में अक्षय तृतीया को हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण  से देखने की कोशिश करें तो  कुछ इस तरह की बात समझमें आती है .

ब्रह्माण्ड में मौजूद हर वस्तु ऊर्जा से बनी है. एक वैज्ञानिक सूत्र  है जिसमें  कहा गया है कि ऊर्जा बनाई या नष्ट नहीं की जा सकती है, यह बस रूप बदलती है। ऊर्जा के अलावा कोई भी वस्तु अक्षय नहीं है .  असीम व अक्षय ऊर्जा का पुंज जिससे ब्रह्माण्ड की हर वस्तुका निर्माण हुआ है उसे इश्वर या अवतार का नाम दिया गया है. श्री नारायण व  श्री परशुराम का अवतार लेना भी इसी असीम ऊर्जा का प्रतीक है.   

  
अक्षय तृतीया के दिन माँ लक्ष्मी के साथ साथ माँ सरस्वती व श्री गणेश की  आराधना की जाती है . हमारी मान्यताओं के अनुसार श्री गणेशजी को बुद्धि से, माँ सरस्वती को विद्या से और माँ लक्ष्मी को धन से जोड़ा जाता है. बुद्धि , विद्या व धन ऐसी उर्जा है जो अक्षय होती है जितना भी इस्तेमाल करो हमेशा बढ़ेगी ही,अक्षय ही रहेगी. ये ऐसी ऊर्जाएं हैं जो कभी नष्ट नहीं होती बस रूप  बदलती हैं जैसे बुद्धि से विद्या , विद्या से धन ,धन से विद्या, विद्या से बुद्धि.

कहा जाता है की भागीरथी के प्रयास से आज ही के दिन गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था. अक्षय तृतीया के दिन गंगा नदी में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. गंगा जल के  दिव्य जल में दिव्य ऊर्जा पाया जाता है जो प्रदूषित होने के बावजूद भी कभी दोषपूर्ण या दूषित नहीं होता क्योंकि गंगा में बक्टेरियोफागेस ,एक प्रकार का वायरस पाया जाता है जो बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है.गंगा जल में  उच्च मात्रा में ऑक्सीजन पाया जाता है जो की ऊर्जा का स्रोत है.  यहाँ अक्षय वट के विषय में भी जान लें की बरगद का पेड़ हमें शुद्ध हवा प्रदान करता है .यह हमे भरपूर  मात्र में ऑक्सीजन देता है . बरगद का पेड़ 20 घंटों से भी ज्यादा समय तक ऑक्सीजन छोड़ता है  और अशुद्ध हवा को खींचता है.इसलिए बरगद का पेड़ विशाल होने के साथ –साथ गुणों से भरपूर वृक्ष है.

  सुदामा का अर्थ है सुन्दर शरीर और कृष्ण का सम्बन्ध सकारत्मक ऊर्जा है  . हमारे अन्दर की ऊर्जा तभी तक बनी रह सकती है जब तक हम अपने शरीर को सकारात्मक कर्मों व विचारों से स्वस्थ रख सकें तथा अपने मानसिक एवं आतंरिक क्षमता का विकास कर सकें .सुदामा का कृष्ण से मिलना और अपार धन सम्पति का लाभ होना इसी का संकेत है.

कहा जाता है यह विशेष दिन किसी भी कार्य को शुरू करने के लिए शुभ एवं फलदायक माना जाता है.तो क्यों न हम आज से अपने अन्दर असीमित ऊर्जा को सकरात्मक रूप से उपयोग में लाने का विचार करें जिससे हमारी मानसिक एवं आतंरिक क्षमता का विकास हो सके और हमारे जीवन के सुख अक्षय हो जाएँ . आज ही से अपने पर्यावरण की ऊर्जा का संरक्षण करने की कोशिश करें . 
श्री कृष्णा ने केवल  पांडवों को ही अक्षय पात्र नहीं दिया था बल्कि  हम सबको दिया है बस हम उसका उपयोग करना नहीं जानते. हमारे अन्दर की ऊर्जा ही वह अक्षय पात्र है जिसका कभी क्षय नहीं होता है बस रूप बदलता रहता है.
II अक्षय तृतीया हम सबको ऊर्जावान बनाये और
हम सब आतंरिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से ऊर्जावान रहें II





  
 
 

गुरुवार, 2 मई 2019

श्री कृष्ण की बांसुरी


भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी
भगवान कृष्ण की कल्पना वो भी बिना मोरपंख व बांसुरी के ! शायद ही किसी ने ऐसी कल्पना 
की हो.  एक कला प्रदर्शनी में एक पेंटिंग पर नज़र अटक गयी जिस में कृष्ण जी को गिटार के साथ 
 प्रदर्शित किया गया था. कुछ अजीब सा लगा, उस कलाकार से यह प्रश्न किया कि भगवान कृष्ण जी
 तो  बांसुरी  बजाते थे फिर ये गिटार क्यों ? पता नहीं, लेकिन मुझे गिटार पसंद है इसलिए पेंटिंग 
बना दिया और  क्या फर्क पड़ता है ,दोनों ही वाद्ययंत्र हैं. गिटार बजाना, या किसी वाद्य यंत्र का 
मन और शरीर पर शांत प्रभाव पड़ता है. प्रश्न का उत्तर तो लाजवाब था पर मन में श्री कृष्ण की
 बांसुरी के विषय में जानने की उत्सुकता बढ़ गयी.
भगवान श्रीकृष्ण के अदभुत व्यक्तित्वों में से एक, उनकी बांसुरी की धुन  से सभी को आकर्षित
 करने की उनकी क्षमता थी. सृजन की शक्ति उनकी बांसुरी के माध्यम से व्यक्त की जाती है। 
श्री कृष्ण के साथ नाद या शब्द  का पूर्ण अवतार उनके वेणु रूप में हुआ. श्री कृष्ण की वंशी का
 मधुर निनाद ही नादावातार था. पूरी तरह से बांस से बना बांसुरी मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे 
पुराना संगीत वाद्ययंत्र है। बांसुरी एक मात्र ऐसा वाद्ययंत्र है जिसकी पूरी तरह से प्राकृतिक ध्वनि है.
 बांसुरी सादगी और बहुत मधुर ध्वनि का प्रतिनिधित्व करती है.
 बांसुरी के बारे में खोज बीन करते हुए समझ में आया कि  श्री कृष्ण तीन तरह की बांसुरी बजाते थे—वेणु , मुरली व वंशी . वेणु की लम्बाई करीब छह इंच की होती है जिसमे नौ छेद होतें हैं.मुरली लगभग अठारह इंच लम्बी होती है जिसमे सात छेद होतें हैं.वंशी की लम्बाई लगभग पन्द्रह इंच होती है जिसमे बारह छेद होतें हैं. ये कहा जाता है कि कृष्ण जी गोपियों और राधा रानी को आकर्षित करने के लिए वेणु बजाते थे , मुरली का उपयोग गायों को आकर्षित करने के लिए और वंशी पेड़ , नदियों ,जंगलों आदि को आकर्षित करने के लिए.
 बांसुरी बजाने की कला पर ध्यान दें तो बांसुरी की ध्वनि वायु की एक स्थिर धारा से होती  है जो उसके माध्यम से कम्पन करती है . छेद के पार  हवा की धारा बांसुरी के गुंजायमान गुहा के अन्दर हवा को उत्तेजित करती है, जिससे यह कम्पन होता है और एक ध्वनि बनता है. पूरे उपकरण में मुखपत्र का स्वर गूंजता है, बांसुरी की पिच वाद्य के आकार से निर्धारित होती है .
बांसुरी जितनी बड़ी होगी ,यंत्र की पिच उतनी ही गहरी होगी  क्योंकि बड़ी वस्तुएं अधिक धीमी गति से कम्पन करती हैं. इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो समझा जा सकता है की तीन अलग अलग तरह की बांसुरी का उपयोग श्री कृष्ण क्यों करते थे. बांसुरी से विविध रूप से  मधुर संगीत की अभिव्यति की जा सकती है.
 स्वास्थलाभ की दृष्टी से देखा जाए तो बांसुरी सुनाने या बजने से कई महत्वपूर्ण स्वास्थ्य लाभ भी होता है. इसे बजाने से शरीर में उर्जा का बेहतर प्रवाह होता है और सकारात्मक प्रभाव प्रदान करता है. इसे बजाने के दौरान की जाने वाली नियमित सांस की गति प्राणायाम श्वास करियों के सामान है.यह सांस लेने की गति में सुधार करता है . नियमित रूप से  बांसुरी बजने से ब्रोंकईटिस का खतरा कम हो जाता है. इस यन्त्र को बजाने से एकाग्रता बढ़ती है . कुल मिलाकर यह हमारे शरीर पर सकारात्मक प्रभाव प्रदान करता है। बंसुरी बजाना ध्यान से  भी जोड़ा गया है। अध्ययन बताते हैं कि संगीत न केवल तनाव को कम करता है, बल्कि यह रक्तचाप के स्तर को भी कम करने में मदद करता है।
  श्री कृष्ण की कल्पना उनकी  मनमोहिनी, सम्मोहिनी,अनंदिनी बांसुरी के बिना तो किया भी नहीं जा सकता है.बाकी रही कलाकार की कल्पना, उसकी  पहुँच की कोई सीमा तो तय नहीं है.

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मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

श्री गणेश जी की सूंड


श्री गणेश जी के सूंड के दिशा का महत्व

दिवाली की पूजा के लिए श्री लक्ष्मी गणेश की कच्ची मिटटी की प्रतिमा घर लाने की पुरानी परंपरा चली आ रही है.पर जब भी मूर्ति लेने जाओ तो कहा जाता था गणेश जी की सूंड की दिशा बायीं ओर होनी चाहिये . अच्छे से देख कर लाना. बाज़ार में दूकानदार कहता है , अरे ! गणेश जी तो विघ्नहर्ता  ही रहेगें उनकी सूंड किसी भी दिशा में क्यों न हो. मूर्ति  घर लाने पर गणेश जी की सूंड की दिशा का बकायदा इंस्पेक्शन होता था.पौराणिक कथाओं में गणेश जी की सूंड की दिशा से सम्बंधित पुस्तकें निकाल कर देखा – पढ़ा जाता था . पूरी तरह तसल्ली के बाद ही घर में  पूजा के लिए मूर्ति रखी जाती थी. पर मंदिरों में या  गणेश  चतुर्थी  पर जब पंडालों के लिए  आती है तो गणेश जी के   सूंड की दिशा दाहिनी ओर होती है. 
पहले पहल ये बात समझ में नहीं आती थी. कुछ बड़े होने पर योग के सन्दर्भ में नाड़ी से परिचय हुआ—ईडा, पिंगला और सुषुम्ना जो हमारे मेरुदंड से जुड़े हैं. जहाँ ईडा ऋणात्मक उर्जा का संचार करती है वहीँ पिंगला से  धनात्मक उर्जा का संचार होता है. ईडा को चन्द्र नाड़ी भी कहा जाता है जिसकी प्रकृति शीतल व विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करने वाली मानी जाती है.पिंगला को सूर्य नाड़ी कहा जाता है जो हमारे शारीर में श्रमशक्ति व जोश जगाती है और चेतना को बहिर्मुखी बनती है. पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है जबकि ईडा का बाएं भाग से.
यदि वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जाय तो गणेश जी के सूंड की दिशा को नाड़ी के उद्गम से जोड़ दें तो ये निष्कर्ष निकलता है की –गणेश जी की बायीं ओर मुडी सूंड वाली प्रतिमा  ईडा नाड़ी का प्रतिनिधित्व करती है , जो चन्द्रमा की  उर्जा  से सम्बंधित  है जबकि  दाहिनी ओर मुड़ी सूंड वाली प्रतिमा पिंगला नाड़ी का प्रतिनिधित्व करती है , जो की सूर्य उर्जा से सम्बंधित है. ईडा नाड़ी का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतिमा अधिक ठंडा ,पौष्टिक और आराम देने वाली शीतल उर्जा  प्रदान करती है जो घर की मंदिर में पूजा के लिए उत्कृष्ट होती है जब की पिंगला नाड़ी का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतिमा उग्र स्वभाव व अग्नि  सामान उर्जा प्रदान करती है जो मंदिरों में या पूजा पंडालों में स्थापित किया जाता है जो त्वरित परिणाम या सिद्धि दे सकतें हैं.
 यदि गणेश जी की सूंड सामने की ओर हो तो यह दर्शाता है की सुषुम्ना नाड़ी पूरी तरह से खुली हुई है. हवा में सीधा खड़ा सूंड  कुंडलिनी शक्ति का  सहस्त्रार (मुकुट चक्र) पर  स्थायी रूप से पहुँच जाना दर्शाता है.ऐसी प्रतिमा बहुत ही दुर्लभ होती है.
घर में  सुख शांति वाली शीतल उर्जा बनी रहे इसलिए गणेश जी की बायीं ओर मुडी सूंड वाली  ही रखने की मान्यता है और मंदिरों या  सिद्धिपीठों में गणेश जी की दायीं ओर मुडी सूंड वाली  की स्थापना की जाने की मान्यता है जो सूर्य उर्जा और सिद्धि प्रदान करती है .

II इति II


शिव लिंगम क्या है ?

सावन माह का हर दिन  बाबा भोलेनाथ को समर्पित  होता है I घर घर में रुद्राभिशेख का आयोजन किया जाता है व  हर शिव मंदिर में बाबा भोलेनाथ ...