e mail supscription

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

गुरुवार, 27 जून 2019

माँ कामख्या मंदिर का अम्बुबाचि मेला

इस वर्ष जून माह में गरर्मियों की छुट्टियों में माँ कामख्या के दर्शन के लिए गोहाटी जाना हुआ. पूजा अर्चना के बाद जब हम वहां से चलने लगे तो पंडितजी ने कहा की आप लोग सही समय पर आयें हैं अगर एक हफ्ते बाद आये होते तो माँ के दर्शन नहीं हो पाते  क्योंकि आषाढ़ माह में अम्बुबाचि मेले के दौरान मंदिर के कपाट तीन दिनों तक बंद रहता है.इस मेले के विषय और उससे सम्बंधित जानकारी आप लोगों से साझा करना चाहूंगी.

 असम के नीलांचल पर्वत पर समुद्र तल से करीब 800 फीट की ऊचाई पर माँ कामख्या  देवी का मंदिर स्थित है, जो की देवी के 51शक्ति पीठों  में से एक माना जाता है. माना जाता है की भगवान् विष्णु ने भगवान् शिव का  मोहभंग करने के लिए  जब देवी सती के शव  को चक्र से काटा  तो उनके शरीर  के 51 हिस्से धरती पर गिरे . वे टुकड़े जहाँ जहाँ  गिरे वहां वहां देवी के शक्तिपीठ स्थापित हुए. माता के योनी का भाग जहाँ पर गिरा ,वह कामरूप कहलाया, जो कामख्या शक्तिपीठ के नाम से दुनियाभर में प्रसिद्द है. इस  मंदिर में देवी की कोई मूर्ती या चित्र नहीं दिखाई  देता है.मंदिर में एक कुण्ड बना है जो की हमेशा फूलों से ढका रहता है इस कुण्ड से हमेशा ही जल निकलता रहता है.
अम्बुबाचि  शब्द “अम्बु” और “बाचि” दो शब्दों को मिलाकर बना है  , जिसमे “अम्बु “का अर्थ पानी और “बाचि” का अर्थ है उत्फूलन. यह शब्द स्त्रियों की शक्ति और उनके जन्म क्षमता को दर्शाता है. यह मेला उस समय लगता है जब माँ कामख्या ऋतुमती रहती हैं .  अम्बुबाचि योग पर्व के दौरान माँ भगवती के गर्भ गृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं . तीन दिनों के बाद माँ भगवती की विशेष पूजा व साधना की जाती है. चौथे दिन ब्रह्म मुहूर्त में देवी को स्नान करवाकर श्रींगार के उपरान्त ही मंदिर श्रधालुओं के लिए खोला जाता है.
                                                                                               
      देवी की योनिमुद्रापीठ दस सीढ़ी नीचे एक गुफा में स्थित  है. कहतें है की देवी के रजस्वला होने से पूर्व गर्भ गृह स्थित महामुद्रा के आसपास सफ़ेद वस्त्र बिछा दिए जाते हैं,तब यह वस्त्र माता के रज से रक्तवर्ण हो जाता है. उसी वस्त्र को भक्त गण प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. . धार्मिक कथाओं के अनुसार सतयुग में माँ कामख्या 16 साल में एक बार रजस्वला होती थीं , द्वापर युग में 12 साल बाद और त्रेता युग में ७ साल बाद अम्बुबाची के पर्व का आयोजन होता था . कलयुग में हर साल जून  में यह आयोजन होता है. आश्चर्य की बात है की इन तीन दिनों में ब्रह्मपुत्र का जल भी लाल हो जाता है.      


  भूविज्ञान के  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझें तो आसाम के मिटटी में प्राकृतिक रूप से उच्च लौह तत्व होता है जो पानी का रक्त रंग बनता है. कामख्या मंदिर के पहाड़ में सिनेबार (मर्कुरिक सल्फाइड ) प्रचुर मात्रा में पाया जाता  है. तथ्य के रूप में खनिज सिनेबार को शक्ति पूजा के साथ सबसे महत्वपूर्ण से जोड़ा  जाता है, जिसमें दो सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल – कामख्या  और हिंगलाज (पाकिस्तान में ) सिनेबार जमा वाले क्षेत्रों में स्थित है. अम्बुबाचि मेले के समय ब्रहमपुत्र नदी अपने  मौसमी बाढ़ की शुरुआत करती है. लोहे की समृद्ध नदी जब भूमिगत गुफा में पहुंचती  है जो की मर्कुरिक सल्फाइड  से भरी रहती है तब नदी का जल पूर्ण रूप से रक्त लाल  हो जाता है .परन्तु सवाल यह  उठता है की केवल तीन दिन ही ब्रहमपुत्र नदी का पानी रक्त लाल क्यों होता है , बाकी बाढ़ के दिनों में क्यों नहीं?                                                                                                                                                     
यह एक धर्म  भी है , धर्म  से जुड़ा रहस्य  भी  है और  भूविज्ञान भी. 

यदि आप लोगों में से कोई  इस विषय में और भी जानकारी साझा करना चाहें तो आप सभी का स्वागत है.

    




मंगलवार, 18 जून 2019

गोदना बनाम टैटू

 गोदना बनाम टैटू

कक्षा में लेह के चंग्पा जनजाति के लाइफस्टाइल में उनकी पश्मीना बकरियों के बारे में बात हो रही थी जिसमे वे अपनी भेड़ बकरियों को एक साथ एक ही स्थान (लेखा) में रखते हैं  और अपनी अपनी बकरियों की  पहचान के लिए विशेष निशान बना देते हैं. एक बच्चे ने मुस्कुरा कर कहा ठीक जैसे गाँव में गोदना गोद देतें हैं और इसी पर सभी बच्चे जोर जोर से हँसने लगे. बात आई गयी हो गयी. एक दिन उर्मिला शुक्ल द्वारा लिखित कहानी गोदना के फूल पढ़ते समय कक्षा में घटी घटना और आजकल फैशन में चल रही टैटू  की याद आ गयी. याद आ गयी बुआ ,चाची और दादी की कलाई पर बने काले काले फूल पत्तियों की. दादी कहती थी की गोदना गुदवाना शुभ माना जाता है. पूर्वांचल में आज भी बड़ी बूढ़ियाँ अपने पति का नाम नहीं लेती हैं. उनके पति का नाम उनके घर के बच्चे बताते हैं. यदि ज्यादा जरूरी हो और कोई विकल्प नहीं हो तो वे  अपना हाथ आगे कर देतीं हैं , जहां पति के नाम का गोदना होता है. कृष्ण की लीलाओं में एक लीला गोदना गोदने की भी है.वे नट्टिन का वेश भूषा  अपनाकर गोपियों को गोदना गोदतें हैं.
कान्हा धई के रूप जननवा
गोदे चले गोदनवा
गोदना भले गाँव से विलुप्त हो गया हो, पर आज भी गोदना लोकगीतों में विराजमान है.
गोदना पहले गाँव के लोग ही गोदवाते थे और शहर के लोग जो गोदना को पिछड़ेपन  की निशानी मानते थे अब धड़ल्लेसे टैटू अपने बाजू पर बनवाते हैं. अभी तक इसका प्रचलन जनजातियों में विशेष रूप से होता था  पर अब तो पढ़े लिखे  लोग भी इसे अपने शरीर पर रंग बिरंगे स्याहियों से  मशीन से गुदवाने लगे हैं जिसे टैटू का नाम दिया गया है.
गोदना की प्रथा प्राचीन कालसे चली रही है. इस कला का प्रमाण ईसा से १३०० साल पहले ,मिश्र में ३०० वर्ष ईसापूर्व  साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले हैं.   आश्चर्य की बात यह है की कुछ लोग कुरूप दिखने के लिए गोदना गोदाते हैं तो कुछ लोग आकर्षक दिखने के लिए. राजस्थान में गोदना का चलन सभी जनजातियों में है ,लेकिन भाट, नट, बंजारा, कालबेलिया ,आदि में इसका अधिक प्रचलन है. छत्तीसगढ़ में यह माना जाता है की गोदना गुदवाये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती.भीलों की मान्यता की शरीर को इससे कई बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है. वहीँ गोंड जनजाति की मान्यता है की कोई इसे चुरा नहीं सकता. गोंड जाति के लोग यह मानते हैं की जो बच्चा चल नहीं सकता, चलने में कमजोर हो , उसके जांघ के आसपास गोदने से वह न सिर्फ चलेगा  बल्कि दौड़ने लगेगा. भील यह मानते हैं की गोदने के कारण शरीर बीमारियों से बच जाता है. कुछ लोगों का यह मानना है कि गोदना के कारण आत्माएं क्षति नहीं पंहुचा सकती. बैगा जनजाति संसार में सबसे अधिक गुदना प्रिय है.  बैगा जनजाति गोदना को बहुत अहमियत देते हैं. बैगा स्त्री गोदना गुदवाने को अपना धर्म मानती हैं. एक गोदना ही ऐसी चीज़ है , जो साथ जाती है. मरते वक्त तो लोग तन से कपड़ा भी उतार लेतें हैं .


  मध्य प्रदेश के बैगा आदिवासी मुख्यतः जड़ी बूटियों का उपयोग करते हैं. इनकी ऐसी धारणा है की गोदना गुदवाने से गठिया ,वात या चर्म रोग नहीं होते.
 बैगा आदिवासी गोदना गोदने के लिए रमतिला (काला तिल ) का तेल , सरई  (साल ) की गोंद को मिलाकर एक पात्र में जलाते हैं . इस पात्र के ऊपर एक दूसरे पात्र को ढककर उससे काजल बनाते हैं.इसमें आधा कटोरी बीजा का रस मिलाया  जाता है. इस मिश्रण को 12 सुईयों के माध्यम से शर्रीर में गोदा जाता है.गाय के गोबर का उपयोग भी किया जाता है.
  वैज्ञानिक पहलुओं पर गौर करे तो इन जड़ी बूटीओं से बनाया गया गोदना शरीर को सुरक्षित रखता है और शायद इसलिए आज भी यह कला प्रयोग में लायी जा रही है..
काले तिल के तेल में नियासिन , ओलिक एसिड , कार्बोहायड्रेट, प्रोटीन , फाइबर, स्टीयरिक एसिड ,  राइबोफ्लेविन  और एस्कॉर्बिक एसिड जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व होतें हैं जिसमे उत्तम उपचार करने की क्षमता होती है .घावों के कारण होने वाली जलन से रमतिला या काला तिल का तेल तुरंत राहत  प्रदान करता है
साल वृक्ष का राल एक शक्तिशाली एस्ट्रिजेंट के साथ साथ एंटी माइक्रोबियल गुणों से भरपूर होता  है  जो इसे हर्बल मलहम में एक अदभुत  घटक बनता है. राल को एक पेस्ट के रूप में दर्दनाक सूजन का इलाज करने के लिए बाहरी रूप से लगाया जाता है. राल को घावों को साफ़ करने और उपचार में तेज़ी लाने उपयोग किया जाता  है.  बीजा का  रस एक जीवाणुरोधी एवं अदभुत एस्ट्रिजेंट है जो त्वचा की स्थिति को ठीक करने में मदद करता है. गाय का गोबर अपने एंटी बैक्टीरियल गुणों के कारण त्वचा रोगों के इलाज़ के लिए तथा संक्रमण को कम करने में सहायता करता है .
चिकित्सकों का मानना है की टैटू बनाने में संक्रमित सुई और संक्रामक स्याही के इस्तेमाल से टिटनेस , हेपटाइटिस ,टीबी  और एड्स जैसे जानलेवा संक्रमण हो सकते हैं. शोध में कहा गया है कि टैटू बनाने  में लाये जाने वाले ज्यादातर औद्योगिक रसायन होते हैं जिनका उपयोग वाहनों के पेंट या फिर  स्याही बनाने में होता है  और शरीर के किसी भी हिस्से में इनका उपयोग करना सुरक्षित नहीं है.यह तो तै है की गोदना अगर देसी हो तो शरीर सुरक्षित रहेगा पर विदेशी रंग में रंग जाए तो टैटू बनकर शरीर को संक्रमित कर सकता है.



शिव लिंगम क्या है ?

सावन माह का हर दिन  बाबा भोलेनाथ को समर्पित  होता है I घर घर में रुद्राभिशेख का आयोजन किया जाता है व  हर शिव मंदिर में बाबा भोलेनाथ ...