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सोमवार, 20 मई 2019

हमारी तुलसी




स्वीट बेसिल हमारी तुलसी नहीं हो सकती




हम अपनी परम्पराओं को मानें  तो तुलसी को लक्ष्मी के अवतार में पूजा जाता है. श्री विष्णु को प्रिय होने की वजह से तुलसी को “हरिप्रिया” भी कहा जाता है. परंपरागत रूप से तुलसी को घर के आँगन में लगाया जाता है. कोई समय था जब तुलसी का चौरा यदि घर के आँगन में न हो तो घर आँगन  कुछ अधूरा सा लगता था. . कहा जाता है की तुलसी को घर के आँगन में या बाहर  ही लगाया जाना चाहिए . तुलसी स्वाभाविक रूप से उष्णकटिबंधीय या उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पायी जाती है. तुलसी ठण्ड के प्रति बहुत संवेदनशील होती है . कड़ी धूप में तुलसी की बढ़त बहुत ही अच्छी तरह से होती है. यही वजह है की तुलसी को घर के आँगन या बाहर रखने की परंपरा बन गयी .वैसे तुलसी को घर के अन्दर भी रखा जा सकता है.
अब शहरों में  जगह की कमी या फ्लैट सिस्टम होने की वजह से तुलसी का चौरा आँगन से सिमट कर बालकनी में भले ही आ गया हो पर आज भी तुलसी की उपयोगिता  वैसी ही बनी हुई है. किसी को  जुखाम हो तो  काली मिर्च के साथ , खांसी हो तो  अदरक के साथ, बुखार हो तो  शहद के साथ, सांस लेने में तकलीफ हो तो हल्दी के ................. एक लम्बी लिस्ट बन जाएगी. तुलसी के पत्तों से लेकर जड़ तक का उपयोग होने के कारण आयुर्वेद में इसे जीवन का अमृत माना जाता है.
बचपन में जब परीक्षा देने जाते थे तो हम सभी तुलसी के  पत्ते  मुहँ में रख लेते थे या गटक जाते थे. शायद ....हम सभी लोग. तुलसी की पत्तियों  को दाँतों से चबाना नहीं चाहिये ,ऐसा  घर के बड़े कहते थे.बहुत बाद में समझ में आया की तुलसी में आयरन और मरकरी काफी अधिक मात्र में पाया जाता है और पत्तियों को चबाने से दाँतों की उपरी परत  (enamel) क्षतिग्रस्त हो सकती है.
मंदिर में प्रभु दर्शन के समय पुजारी जी अपनी छोटी सी ताम्बे की लुटिया से चरणामृत सभी श्रद्धालुओं को देतें हैं जिसमे तुलसी के पत्ते भी दिखाई देतें हैं ,जिसे सभी श्रद्धालु बड़ी श्रद्धा से अपने दाहिनी हथेली में ले कर उसका सेवन करतें हैं.  तांबे के बर्तन में जल रखने से तांबे के औषधीय गुण तो आ ही जाते हैं और फिर तुलसी पत्ता उसी जल में डाल दिए जाएँ तो सोने पे सुहागा,स्वस्थ लाभ के साथ साथ यह जल मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है और बुद्धि, स्मरण शक्ति को भी बढानें में भी कारगर होता है. 
आजकल के भागम भाग जिंदगी में सबसे ज्यादा जगह स्ट्रेस ने और योग ने ले ली है . यदि योग- ध्यान हम तुलसी के बाग़ में करें तो कहा जाता है की स्ट्रेस नौ दो ग्यारह हो जाता है . कैसे ?तुलसी के पौधे सबसे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन बनाते हैं  और एक विशेष प्रकार की वाष्प तुलसी के पौधे द्वारा हवा में छोड़ा जाता है जो वायुमंडल को शुद्ध करता है .यह वास्तव में  तुलसी के पौधे में मौजूद एक असेंसिअल खुशबुदार आयल होता है जो वाष्पित हो हवा के माध्यम से फैलता है और बैक्टीरिया एवं अन्य पदार्थों से वायु को मुक्त करता है जो रोगों का कारण बनतें हैं. तुलसी के पौधे के पास रखने से चीजे आसानी से खराब नहीं होती हैं. तुलसी के पौधों के बीच रखने पर मृत शरीर भी तेजी से नहीं सड़ते .जीवाणुरोधी गुण और पत्तियों की विद्युत् ऊर्जा संग्रहित भोजन सामग्रियों को ग्रहण के दौरान प्रकाश विकिरण के प्रतिकूल प्रभाव से रक्षा करती हैं.
एक दिन टेलीवीजन पर फूड्स चैनल पर इतालवी कैमप्रेस  सलाद में टमाटर और मोजरेला के साथ बेसिल के पत्तों से सजावट की बात की जा रही थी जिससे उसकी खुशबू और स्वाद अलौकिक हो जाता  है.  सभी को मालूम है कि इतालियन या थाई भोजन में बेसिल का उपयोग किया जाता है .बेसिल क्या  होता है? बेसिल को जब गूगल किया तो बेसिल यानी तुलसी बताया गया. लेकिन दूर दूर तक मुझे याद नहीं की घर में कभी किसी व्यंजन में माँ ने तुलसी के पत्तों का उपयोग किया हो .हाँ, घर में चरणामृत ,पंचामृत ,प्रसाद में या फिर ग्रहण के समय भोजन में तुलसी के पत्तों का प्रयोग होते देखा है.
 तुलसी के अर्क का उपयोग आयुर्वेदिक उपचार में आम सर्दी, सिर दर्द, पेट की खराबी, सूजन, हृदय रोग, विभिन्न प्रकार के विषाक्तता और मलेरिया के लिए किया जाता है। परंपरागत रूप से, तुलसी को कई रूपों में लिया जाता है: हर्बल चाय के रूप में, सूखे पाउडर, ताज़ी पत्ती, या घी के साथ मिश्रित। कर्पूर तुलसी से निकाले गए आवश्यक तेल का उपयोग ज्यादातर औषधीय प्रयोजनों के लिए और हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता है.
दुनिया भर में हमारी तुलसी को “होली बेसिल” और थाई व्यंजनों में प्रयोग किये जाने वाली तुलसी को “स्वीट बेसिल” कहते हैं. तुलसी में ओलेअनोलिक एसिड ,उर्सोलिक एसिड, रोस्मारिनिक एसिड, यूगेनोल , कार्वक्रोल, लिनालूल , बीटा-कार्योफैलोन जिनकी वजह से यह आयुर्वेदिक औषधि के रूप में प्रयोग में लायी जाती है. स्वाद में तीखी और कड़वी होती है पर स्वीट बेसिल में लौंग की तेज गंध होती है और स्वाद में चटपटी होती  है . और यह चटपटी बेसिल हमारी तुलसी से बिलकुल अलग है.

तुलसी के सानिध्य में रहने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार बढ़ने लगता है और सभी तरह के नकारात्मक विचारों का नाश होता है.
II महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी
आधि व्याधि जरा मुक्तं तुलसी त्वां नमो स्तुते II



मंगलवार, 14 मई 2019

अद्भुत व विशिष्ट कुश घास

अद्भुत व विशिष्ट कुश घास 
               
कुम्भ मेले में बहुत से शिल्पकारों के  कला की नुमाइश लगी थी ,उनमे से एक जगह “ऋतु रग्स”
भदोही , की  घास की बनी  हुए  चटाईयां ,आसन , रनर ,कोस्टर आदि  लोगों द्वारा काफी पसंद की जा रहीं थी. पूछने पर बताया गया की यह इको फ्रेंडली  कुश घास से बनी है. कुश घास से फिर याद आया की पंडितजी पूजा शुरू करने से पहले इसी कुश घास की नोक को जल में भिगो कर चारों तरफ उस स्थान को शुद्ध करने के लिए घर या मंदिर में  छिड़कते हैं और धार्मिक अनुष्ठानों व  हवन में वैदिक मंत्रो के उच्चारण के समय यजमान के दाहिने हाथ की अनामिका में कुशा घास की बनी पैंती (अंगूठी) भी पहनाई जाती है. ऐसा क्यों किया जाता है ? जवाब – क्योकि यह एक पवित्र घास है . कैसे ? कोई जवाब नहीं. आज इसी अद्भुत व विशिष्ट कुशा घास के वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में बात करेंगे.

कुशा घास को  Desmostachya bipinnata के नाम से जाना जाता है. कुश की खेती हर जगह नहीं की जाती है, लेकिन यह प्राकृतिक रूप से चुनिंदा स्थानों में उगती है और उत्तर-पूर्व और पश्चिम उष्णकटिबंधीय, और उत्तरी अफ्रीका (अल्जीरिया, चाड, मिस्र, इरिट्रिया, इथियोपिया, लीबिया, मॉरिटानिया, सोमालिया, सूडान और ट्यूनीशिया) में उपलब्ध है; और मध्य पूर्व में देशों, और समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय एशिया (अफगानिस्तान, चीन, भारत, ईरान, इराक, इजरायल, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान, सऊदी अरब, थाईलैंड) में.
 यह एक पुरानी विश्व बारहमासी घास है , जिसे लम्बे समय से मानव इतिहास में जाना जाता है और इसका उपयोग किया जाता रहा है. इस घास  का उल्लेख ऋग्वेद में पवित्र समारोहों में उपयोग के लिए किया गया है  जिसमे पुजारियों एवं देवताओं के लिए कुश का आसन प्रयोग होता था.
बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध द्वारा कुश के आसान पर बैठ कर ज्ञान प्राप्त करने का उल्लेख बौद्ध खातों में मिलता है. श्री कृष्ण ने  कुश के आसन को ध्यान के लिए आदर्श आसन के रूप में माना है.  ऐसा माना जाता है की ध्यान के दौरान हमारे शरीर से ऊर्जा  उत्पन्न होती है . यदि हम कुश के आसन  पर बैठ कर ध्यान करें तो वह उर्जा पैर और पैर की उँगलियों के माध्यम से जमीन / धरती में जज्ब नहीं हो पाती  है.
हवन के दौरान  सभी नकारात्मक विकिरणों को रोकने में मदद के लिए कुश घास को आग के चारों तरफ रखा जाता है क्योंकि यह गर्मी और ताप /अग्नि  के बुरे संवाहक (bad conductor) होते हैं. हाल ही में चिकित्सा अनुसंधान में , कुशा घास में एक्स- रे विकिरण को अवरूध करने की क्षमता देखी गयी  है. इसकी नोक से ध्वन्यात्मक स्पंदनो को संचालित करने की विशेष क्षमता होती है. इसी वजह से पुजारी कुश घास की नोक को जल में भिगो कर पूजा पाठ के स्थान को शुद्ध करने के लिए जल का छिडकाव करतें हैं.
 पारंपरिक उष्णकटिबंधीय घास, कुश को एक पर्यावरण-अनुकूल भोजन परिरक्षक के रूप में पहचाना गया है। ग्रहण के समय ,कुश घास को पानी और भोजन के पात्रों पर रखा जाता था ताकि ग्रहण से किरणों के नकारात्मक प्रभाव उन्हें खराब न कर सके. ग्रहण के दौरान, पृथ्वी की  सतह पर उपलब्ध प्रकाश विकिरणों की तरंगदैर्ध्य और तीव्रता में परिवर्तन हो जाता है। विशेष रूप से, नीले और पराबैंगनी विकिरण, जो अपनी प्राकृतिक कीटाणुशोधन संपत्ति के लिए जाने जाते हैं, ग्रहण के दौरान पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं  होतें हैं। ग्रहण के समय, लोग उस घास को खाद्य पदार्थों में डालते थे जिनमे किण्वित (Fermentation) हो सकती हैं और एक बार ग्रहण समाप्त होने के बाद घास को हटा दिया जाता है.  ग्रहण के दौरान खाद्य उत्पादों में सूक्ष्म जीवों की अनियंत्रित वृद्धि होती है और खाद्य उत्पाद उपभोग के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं।  कुश घास  का उपयोग  ऐसे विशिष्ट अवसरों पर एक प्राकृतिक कीटाणुनाशक के रूप में किया जाता था,ऐसा शोधकर्ताओं का कहना  है।
SASTRA विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा एक व्यवस्थित शोध किया गया, जिसमें गाय के दूध की दही को एक खाद्य पदार्थ के रूप में चुना गया जिसमें आसानी से किण्वन (fermentation)की प्रक्रिया हो सकती है.
पांच अन्य उष्णकटिबंधीय घास की प्रजातियां, जिनमें लेमन ग्रास, बरमूडा घास और बांस शामिल हैं, को एंटीबायोटिक गुणों और हाइड्रो फोबिसिटी के विभिन्न स्तरों के आधार पर तुलना के लिए चुना गया था. दही के सूक्ष्म जीव समुदाय (lectobacillus bacteria) पर विभिन्न घासों के प्रभाव का अध्ययन करने पर ,केवल कुश घास के पदानुक्रमित सतह में बैक्टीरिया की भारी संख्या में आकर्षित करने की विशेषता पायी गयी .
इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोपी द्वारा विभिन्न घासों के नैनो –पैटर्न और पदानुक्रमित सूक्ष्म संरचनाओं की जांच में  कुश घास में अदभुत नैनो –पैटर्न व पदानुक्रमित सूक्ष्म संरचना पायी गयी जो अन्य घासों में नहीं थी.   इसके अलावा, वैज्ञानिकों का कहना है कि कुश घास  को हानिकारक रासायनिक परिरक्षकों के स्थान पर प्राकृतिक खाद्य परिरक्षक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.
SASTRA विश्वविद्यालय, थंजावुर के डा. पी.मीरा  और डा. पी. ब्रिन्धा के पर्यवेक्षण में यह खोज सेंटर फार नैनोटेक्नोलाजी एंड एडवांस्ड बायोमेटरिअल्स (CNTAB) और सेंटर फार एडवान्स्ड रीसर्च इन इंडियन सिस्टम आफ मेडिसिन (CARISM) के संयुक्त  तत्वाधान में  विकसित की गयी थी.

                    II  कुश घास का उपयोग  हमारी ऊर्जा को   संरक्षित करता है II

इस ब्लॉग में आप सभी लोगों के सुझाव आमंत्रित हैं ,कृपया अपने विचार एवं सुझाव साझा करें.

सोमवार, 6 मई 2019

अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया 



बैशाख माह को वसंत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का संधि काल माना जाता है. इसी माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जब सूर्य और चन्द्रमा अपने  सबसे  उत्तम रूप में उदय होते हैं और अपनी दिव्य ऊर्जाओं से परिपूर्ण रहतें हैं, को अक्षय तृतीया का नाम  दिया गया है.
अक्षय तृतीया को अपार शुभता के कारण सर्व सिद्धि मुहूर्त , अनंत-अक्षय ,अक्षुण्ण फलदायक कहा जाता है. अक्षय का अर्थ है असीम या जो कभी कम न हो . बैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि  को  जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं , उनका अक्षय फल मिलता है ऐसा सुनाने – पढने को मिलता है. क्यों का जवाब कभी मिल नहीं पाया.
 हमारी संस्कृति में यह दिन बहुत ही शुभ माना जाता है, बहुत सी पौराणिक कथाएं इस दिन से जुड़ीं हैं जैसे त्रेतायुग का आरम्भ व नारायण का अवतार लेना , सूर्य  और चंद्रमा का  अपनी उच्च राशि में रह कर  अपनी दिव्य ऊर्जाएं ब्रह्माण्ड में वितरित करना , भागीरथी के प्रयास से गंगा का पृथ्वी पर अवतरण होना, कृष्ण का  पांडवो को वनवास के समय एक अक्षय पात्र देना , सुदामा का श्री कृष्ण से मिलने जाना  और उन्हें अपार धन सम्पति का लाभ होना ,देवी महालक्ष्मी का प्रकट होना , इत्यादि .
अक्षय का अर्थ है असीम या जो कभी कम न हो. जरा दिमाग पर ज़ोर लगा कर  ऐसी वस्तुओं की एक सूची बनाने का प्रयास करें जो कभी कम नहीं होगा. क्या आपकी सूची में ज़मीन,मकान,खेत ,धन-दौलत , आभूषण ही हैं या पर्यावरण से सम्बंधित ऊर्जा के स्रोत जैसे जल,वायु, पृथ्वी ,ऑक्सीजन , सूर्य, चंद्रमा भी शामिल हैं. यदि  आज के परिपेक्ष्य में अक्षय तृतीया को हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण  से देखने की कोशिश करें तो  कुछ इस तरह की बात समझमें आती है .

ब्रह्माण्ड में मौजूद हर वस्तु ऊर्जा से बनी है. एक वैज्ञानिक सूत्र  है जिसमें  कहा गया है कि ऊर्जा बनाई या नष्ट नहीं की जा सकती है, यह बस रूप बदलती है। ऊर्जा के अलावा कोई भी वस्तु अक्षय नहीं है .  असीम व अक्षय ऊर्जा का पुंज जिससे ब्रह्माण्ड की हर वस्तुका निर्माण हुआ है उसे इश्वर या अवतार का नाम दिया गया है. श्री नारायण व  श्री परशुराम का अवतार लेना भी इसी असीम ऊर्जा का प्रतीक है.   

  
अक्षय तृतीया के दिन माँ लक्ष्मी के साथ साथ माँ सरस्वती व श्री गणेश की  आराधना की जाती है . हमारी मान्यताओं के अनुसार श्री गणेशजी को बुद्धि से, माँ सरस्वती को विद्या से और माँ लक्ष्मी को धन से जोड़ा जाता है. बुद्धि , विद्या व धन ऐसी उर्जा है जो अक्षय होती है जितना भी इस्तेमाल करो हमेशा बढ़ेगी ही,अक्षय ही रहेगी. ये ऐसी ऊर्जाएं हैं जो कभी नष्ट नहीं होती बस रूप  बदलती हैं जैसे बुद्धि से विद्या , विद्या से धन ,धन से विद्या, विद्या से बुद्धि.

कहा जाता है की भागीरथी के प्रयास से आज ही के दिन गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था. अक्षय तृतीया के दिन गंगा नदी में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है. गंगा जल के  दिव्य जल में दिव्य ऊर्जा पाया जाता है जो प्रदूषित होने के बावजूद भी कभी दोषपूर्ण या दूषित नहीं होता क्योंकि गंगा में बक्टेरियोफागेस ,एक प्रकार का वायरस पाया जाता है जो बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है.गंगा जल में  उच्च मात्रा में ऑक्सीजन पाया जाता है जो की ऊर्जा का स्रोत है.  यहाँ अक्षय वट के विषय में भी जान लें की बरगद का पेड़ हमें शुद्ध हवा प्रदान करता है .यह हमे भरपूर  मात्र में ऑक्सीजन देता है . बरगद का पेड़ 20 घंटों से भी ज्यादा समय तक ऑक्सीजन छोड़ता है  और अशुद्ध हवा को खींचता है.इसलिए बरगद का पेड़ विशाल होने के साथ –साथ गुणों से भरपूर वृक्ष है.

  सुदामा का अर्थ है सुन्दर शरीर और कृष्ण का सम्बन्ध सकारत्मक ऊर्जा है  . हमारे अन्दर की ऊर्जा तभी तक बनी रह सकती है जब तक हम अपने शरीर को सकारात्मक कर्मों व विचारों से स्वस्थ रख सकें तथा अपने मानसिक एवं आतंरिक क्षमता का विकास कर सकें .सुदामा का कृष्ण से मिलना और अपार धन सम्पति का लाभ होना इसी का संकेत है.

कहा जाता है यह विशेष दिन किसी भी कार्य को शुरू करने के लिए शुभ एवं फलदायक माना जाता है.तो क्यों न हम आज से अपने अन्दर असीमित ऊर्जा को सकरात्मक रूप से उपयोग में लाने का विचार करें जिससे हमारी मानसिक एवं आतंरिक क्षमता का विकास हो सके और हमारे जीवन के सुख अक्षय हो जाएँ . आज ही से अपने पर्यावरण की ऊर्जा का संरक्षण करने की कोशिश करें . 
श्री कृष्णा ने केवल  पांडवों को ही अक्षय पात्र नहीं दिया था बल्कि  हम सबको दिया है बस हम उसका उपयोग करना नहीं जानते. हमारे अन्दर की ऊर्जा ही वह अक्षय पात्र है जिसका कभी क्षय नहीं होता है बस रूप बदलता रहता है.
II अक्षय तृतीया हम सबको ऊर्जावान बनाये और
हम सब आतंरिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से ऊर्जावान रहें II





  
 
 

गुरुवार, 2 मई 2019

श्री कृष्ण की बांसुरी


भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी
भगवान कृष्ण की कल्पना वो भी बिना मोरपंख व बांसुरी के ! शायद ही किसी ने ऐसी कल्पना 
की हो.  एक कला प्रदर्शनी में एक पेंटिंग पर नज़र अटक गयी जिस में कृष्ण जी को गिटार के साथ 
 प्रदर्शित किया गया था. कुछ अजीब सा लगा, उस कलाकार से यह प्रश्न किया कि भगवान कृष्ण जी
 तो  बांसुरी  बजाते थे फिर ये गिटार क्यों ? पता नहीं, लेकिन मुझे गिटार पसंद है इसलिए पेंटिंग 
बना दिया और  क्या फर्क पड़ता है ,दोनों ही वाद्ययंत्र हैं. गिटार बजाना, या किसी वाद्य यंत्र का 
मन और शरीर पर शांत प्रभाव पड़ता है. प्रश्न का उत्तर तो लाजवाब था पर मन में श्री कृष्ण की
 बांसुरी के विषय में जानने की उत्सुकता बढ़ गयी.
भगवान श्रीकृष्ण के अदभुत व्यक्तित्वों में से एक, उनकी बांसुरी की धुन  से सभी को आकर्षित
 करने की उनकी क्षमता थी. सृजन की शक्ति उनकी बांसुरी के माध्यम से व्यक्त की जाती है। 
श्री कृष्ण के साथ नाद या शब्द  का पूर्ण अवतार उनके वेणु रूप में हुआ. श्री कृष्ण की वंशी का
 मधुर निनाद ही नादावातार था. पूरी तरह से बांस से बना बांसुरी मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे 
पुराना संगीत वाद्ययंत्र है। बांसुरी एक मात्र ऐसा वाद्ययंत्र है जिसकी पूरी तरह से प्राकृतिक ध्वनि है.
 बांसुरी सादगी और बहुत मधुर ध्वनि का प्रतिनिधित्व करती है.
 बांसुरी के बारे में खोज बीन करते हुए समझ में आया कि  श्री कृष्ण तीन तरह की बांसुरी बजाते थे—वेणु , मुरली व वंशी . वेणु की लम्बाई करीब छह इंच की होती है जिसमे नौ छेद होतें हैं.मुरली लगभग अठारह इंच लम्बी होती है जिसमे सात छेद होतें हैं.वंशी की लम्बाई लगभग पन्द्रह इंच होती है जिसमे बारह छेद होतें हैं. ये कहा जाता है कि कृष्ण जी गोपियों और राधा रानी को आकर्षित करने के लिए वेणु बजाते थे , मुरली का उपयोग गायों को आकर्षित करने के लिए और वंशी पेड़ , नदियों ,जंगलों आदि को आकर्षित करने के लिए.
 बांसुरी बजाने की कला पर ध्यान दें तो बांसुरी की ध्वनि वायु की एक स्थिर धारा से होती  है जो उसके माध्यम से कम्पन करती है . छेद के पार  हवा की धारा बांसुरी के गुंजायमान गुहा के अन्दर हवा को उत्तेजित करती है, जिससे यह कम्पन होता है और एक ध्वनि बनता है. पूरे उपकरण में मुखपत्र का स्वर गूंजता है, बांसुरी की पिच वाद्य के आकार से निर्धारित होती है .
बांसुरी जितनी बड़ी होगी ,यंत्र की पिच उतनी ही गहरी होगी  क्योंकि बड़ी वस्तुएं अधिक धीमी गति से कम्पन करती हैं. इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो समझा जा सकता है की तीन अलग अलग तरह की बांसुरी का उपयोग श्री कृष्ण क्यों करते थे. बांसुरी से विविध रूप से  मधुर संगीत की अभिव्यति की जा सकती है.
 स्वास्थलाभ की दृष्टी से देखा जाए तो बांसुरी सुनाने या बजने से कई महत्वपूर्ण स्वास्थ्य लाभ भी होता है. इसे बजाने से शरीर में उर्जा का बेहतर प्रवाह होता है और सकारात्मक प्रभाव प्रदान करता है. इसे बजाने के दौरान की जाने वाली नियमित सांस की गति प्राणायाम श्वास करियों के सामान है.यह सांस लेने की गति में सुधार करता है . नियमित रूप से  बांसुरी बजने से ब्रोंकईटिस का खतरा कम हो जाता है. इस यन्त्र को बजाने से एकाग्रता बढ़ती है . कुल मिलाकर यह हमारे शरीर पर सकारात्मक प्रभाव प्रदान करता है। बंसुरी बजाना ध्यान से  भी जोड़ा गया है। अध्ययन बताते हैं कि संगीत न केवल तनाव को कम करता है, बल्कि यह रक्तचाप के स्तर को भी कम करने में मदद करता है।
  श्री कृष्ण की कल्पना उनकी  मनमोहिनी, सम्मोहिनी,अनंदिनी बांसुरी के बिना तो किया भी नहीं जा सकता है.बाकी रही कलाकार की कल्पना, उसकी  पहुँच की कोई सीमा तो तय नहीं है.

IIइतिII

शिव लिंगम क्या है ?

सावन माह का हर दिन  बाबा भोलेनाथ को समर्पित  होता है I घर घर में रुद्राभिशेख का आयोजन किया जाता है व  हर शिव मंदिर में बाबा भोलेनाथ ...